सत्तावनी क्रान्ति में अवध क्षेत्र (बैसवारा) के एक क्षत्रिय क्रांतिकारी अमर पुरोधा की गौरव गाथा-
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की पावन पवित्र जन्मभूमि अयोध्यापुरी और लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) का निकटवर्ती क्षेत्र सदा से अवध कहलाता है। इसी अवध में उन्नाव जनपद का कुछ क्षेत्र बैसवारा कहा जाता है।
यह क्षेत्र राजपुताना और बुंदेलखंड की तरह मुगलकाल और अंग्रेजी काल में क्रांतिकारी वीरों की मातृभूमि रहा है। बैसवारे का इतिहास है कि इस वीर प्रसूता भूमि का जिसके वीरों ने अपने जीते जी कभी बैसवारे में अंग्रेजों का झंडा गढ़ने नहीं दिया।
यहां के शौर्य के पराक्रम और आन -वान की शान में अंग्रेजी हुकूमत को इस क्षेत्र का विघटन करने के लिए विवश कर दिया। इसके लिए उन्होंने संपूर्ण बैसवारे को उन्नाव ,रायबरेली ,लखनऊ तथा बाराबंकी जिलों में विघटित कर दिया ताकि यहां के लोग एक स्थान पर एकत्र नही हो सके। इसी बैसवारा की वीरभूमि में राव रामबख्श सिंह का जन्म हुआ, जिन्होंने मातृभूमि को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अन्तिम दम तक संघर्ष किया और फिर हँसते हुए फाँसी का फन्दा चूम लिया।
डौंडिया खेड़ा रियासत और यहां के आखिरी राजा रावरामबक्श सिंह का इतिहास
इस रियासत का इतिहास शुरु होता हैं साल 1194 में, जब कुतुबुद्धीन ऐबक ने कन्नौज के राजा जयचंद सिंह पर हमला किया था. उस हमले में जयचंद के सेनापति केशव राय मारे गये थे.
केशव राय के दो बेटे थे, अभय चंद और निर्भय चंद. कन्नौज युद्ध के बाद ये दोनों भाई अपने ननिहाल पंजाब चले गये. 1215 में ये दोनों भाई वापस उन्नाव आए. तब वहां अरगल राज्य था. उस दौरान पठानों ने अरगल पर हमला किया. इस हमलें से दोनों भाइयों नें अरगल राज्य की रानी और उसकी बेटी को बचाया था.
लेकिन इस लड़ाई में निर्भय चंद मारे गये. इसी के तुरंत बाद 1215 में अरगल महाराज ने अपनी बेटी की शादी अभय चंद से कर दी और अभय चंद को गंगा पार का इलाका दे दिया.
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इससे पहले डौंडिया खेड़ा में जिसे संग्रामपुर के नाम से भी जाना जाता हैं, यहां पर भर जाति के लोग राज्य करते थे. अभय चंद के पोते सेठू राय ने भरों का किला जीता और यहां अपना राज्य बसाया. इसे बैसवारा राज्य के नाम से भी जानते हैं.
इसका उल्लेख अंग्रेज कलेक्टर इलियट की किताब ‘क्रोनिकल्स ऑफ उन्नाओ’ में मिलता है, जोकि 1881 में कानपुर का कलेक्टर हुआ करता था.
बाद में अभय चंद के वंशज महाराजा त्रिलोक चंद यहां के प्रतापी राजा हुए, जिन्हें इस इलाके में वैश्यों का सबसे प्रतापी राजा कहा जाता था. त्रिलोक चंद दिल्ली सल्तनत के बादशाह बहलोल लोदी से जुड़े हुये थे. इनके अलावा मैनपुरी के राजा सुमेर शाह चौहान भी बहलोल लोदी से जुडे हुये थे. त्रिलोक चंद का राज्य उन्नाव के अलावा बहराइच, बाराबंकी, लखीमपुर खीरी और कन्नौज तक फैला हुआ था.
राजा रावरामबक्श इस रियासत के आखिरी राजा थे, जिन्होने केवल आठ साल राज्य किया.
राजा राव रामबक्श सिंह का अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष-
राव रामबख्श सिंह बैसवारा के संस्थापक राजा त्रिलोक चन्द्र की 16वीं पीढ़ी में जन्मे थे। रामबख्श सिंह ने 1840 में बैसवारा क्षेत्र की ही एक रियासत डौडियाखेड़ा का राज्य सँभाला। यह वह समय था, जब अंग्रेज छल-बल से अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। इसी समय लार्ड डलहौजी ने 17 फरवरी 1856 को अवध को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा की थी।
इसी समय इस क्षेत्रमें स्वाधीनता संग्राम के लिए रानी लक्ष्मीबाई, बहादुरशाह जफर, नाना साहब, तात्या टोपे आदि के नेतृत्व में लोग संगठित भी हो रहे थे। राव साहब भी इस अभियान में जुड़ गये। आजादी की इस सन सत्तावन की लड़ाई में अंग्रेजों के छक्के उड़ाने वाले राजा राव रामबख्श सिंह जी ने अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया।
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सबको साथ लेकर लड़े राव साहब-
राव रामबख्श सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत के जुल्मों के खिलाफ क्षेत्र के राजाओं , जमींदारों, किसानों, युवाओं को जोड़कर क्रांति की ऐसी मशाल जलाई कि अंग्रेजों के छक्के छूट गये। गदर के समय राव साहब ने उन दिनों जिस सक्रीयता और युद्ध कौशल का परिचय दिया. उसके कारण जनरल हेवलॉक का लखनऊ पहुंचना मुश्किल हो गया था, ऐसे बीच से ही कानपूर लौट जाना पड़ा था। जुलाई1857से सितंम्बर 1857 तक कानपूर -लखनऊ मार्ग के बीच बैसवारे के वीरों ने राजा राव रामबख्श सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों को बुरी तरह से मात दी।
31 मई, 1857 को एक साथ अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक छावनियों में हल्ला बोलना था; पर दुर्भाग्यवश समय से पहले ही विस्फोट हो गया, जिससे अंग्रेज सतर्क हो गये। कानपुर पर नानासाहब के अधिकार के बाद वहाँ से भागे 13 अंग्रेज बक्सर में गंगा के किनारे स्थित एक शिव मन्दिर में छिप गये।
वहाँ के ठाकुर यदुनाथ सिंह ने अंग्रेजों से कहा कि वे बाहर आ जायें, तो उन्हें सुरक्षा दी जाएगी; पर अंग्रेज छल से बाज नहीं आये। उन्होंने गोली चला दी, जिससे यदुनाथ सिंह वहीं मारे गये। क्रोधित होकर लोगों ने मन्दिर को सूखी घास से ढककर आग लगा दी। इसमें दस अंग्रेज जल मरे; पर तीन गंगा में कूद गये और किसी तरह गहरौली, मौरावाँ होते हुए लखनऊ आ गये।
लखनऊ में अंग्रेज अधिकारियों को जब यह वृत्तान्त पता लगा, तो उन्होंने मई 1858 में सर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में एक बड़ी फौज बैसवारा के दमन के लिए भेज दी। इस फौज ने पुरवा, पश्चिम गाँव, निहस्था, बिहार और सेमरी को रौंदते हुए दिलेश्वर मंदिर को जिसमे अंग्रेज जिन्दा जलाये गये थे उसको भी गोल बारूद से तहस -नहस कर के 10 दिसम्बर 1858 में राव रामबख्श सिंह के डौडियाखेड़ा दुर्ग को घेर लिया। किले को भी गोला बारूद से तहस नहस कर दिया और बहां के लोगों पर भरी अत्याचार किये।
सर ग्रांट हॉप को आश्चर्य था कि राव साहब क्यों नहीं आ रहे है। अंग्रेजों को पता चला कि वेरा अपने साथियों सहित सेमरी में रुके हुये है, इस पर अंग्रेजों की सेना उधर बड़ी जहाँ उसे जमीपुर, सिरियापुर तथा वजौरा के त्रिभुजाकार क्षेत्र में भीषण मोर्चाबंदी का सामना करना पड़ा उसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।
साधु बनकर काशी में रहे राव साहब-
राव साहब ने सम्पूर्ण क्षमता के साथ युद्ध किया, पर अंग्रेजों की सामरिक शक्ति अधिक होने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। अंग्रेजों की इस विजय से क्षेत्र के लोगों का मनोबल टूट गया और उसके नेता भी शिथिल पड़कर अपने बचाव का मार्ग तलाशने लगे।
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इसके बाद भी राव साहब गुरिल्ला पद्धति से अंग्रेजों को छकाते रहे और किसी तरह बच कर अपने एक विश्वासपात्र नौकर चंडी केवट के साथ काशी चले गये और साधू का बेश धारण कर लिया, पर उनके कुछ परिचितों ने अंग्रेजों द्वारा दिये गये चाँदी के टुकड़ों के बदले अपनी देशनिष्ठा गिरवी रख दी। इनमें एक था उनका नौकर चन्दी केवट।
उसकी सूचना पर अंग्रेजों ने राव साहब को काशी में गिरफ्तार कर लिया। राव साहब का साथ देने में कई राजपूत जमींदारों की अंग्रेजो से युद्ध करने में जानें गयी थी जिनमे शिवरतन सिंह, ठाकुर जगमोहन सिंह, ठा0 चन्द्रिका बख्श सिंह, यदुनाथ सिंह, बिहारी सिंह, रामसिंह तथा रामप्रसाद मल्लाह प्रमुख थे।
राव साहब ने जहा अंग्रेजो को जलाया वही दी गयी उन्हें फांसी-
रायबरेली के तत्कालीन जज डब्ल्यू. ग्लाइन के सामने न्याय का नाटक खेला गया। मौरावाँ के देशद्रोही चन्दनलाल खत्री व दिग्विजय सिंह की गवाही पर राव साहब को मृत्युदंड दिया गया। अंग्रेज अधिकारी बैसवारा तथा सम्पूर्ण अवध में अपना आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बक्सर के उसी मन्दिर में स्थित वटवृक्ष पर 28 दिसम्बर, 1861 को राव रामबख्श सिंह को फाँसी दी, जहाँ दस अंग्रेजों को जलाया गया था।
राव साहब डौडियाखेड़ा के कामेश्वर महादेव तथा बक्सर की माँ चन्द्रिका देवी के उपासक थे। इन दोनों का ही प्रताप था कि फाँसी की रस्सी दो बार टूट गयी। ऐसा कहा जाता है कि राजा राव राम बख्श सिंह सुबह मंदिर में शिवजी और मां चंडिका के दर्शन करने के बाद ही सिंहासन पर बैठते थे।
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किवदंतियों के अनुसार राव साहब पूजा करने के बाद अपने गले मे गेंदे के फूल की माला जरूर पहनते थे। यही बजह थी कि भक्ति के प्रभाव से अंग्रेज उनको फांसी पर लटकाते थे रस्सी टूट जाती थी। दो बार रस्सी टूटने पर भी राजा साहब को कुछ भी नहीं होता, ये दैवीय कृपा थी। तब राजा साहिब ने अपने गले में पडी फूलों की माला को उतारकर फेंक दिया और गंगा मैया से अपनी आगोश में लेने की प्रार्थना की उसके वाद जब अंग्रेजों ने उनको फांसी पर लटकाया तब उनके प्राण शरीर से निकले।
जिस जगह राजा राव रामबक्श सिंह फांसी दी गयी, वहां पर बाद में सरकार ने एक पार्क बनवा दिया।
किले के पास जो मंदिर है उसे राजा रामबक्श सिंह ने ही बनवाया था, लेकिन मंदिर के शिखर की स्थापना और मूर्ति स्थापना 1932 में जमींदार विशेश्वर सिंह ने कराई थी।
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