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भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था

हमारे वेदों में वर्ण- व्यवस्था का विधान रखा गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों में सम्पूर्ण समाज विभक्त कर दिया गया है। चारों वर्णों का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक अपना निर्धारित कार्य मिल -बाँट कर पूरी कुशलता से सम्पन्न करें। यदि एक व्यक्ति एक प्रकार का कार्य पूरा मन लगाकर करता है, तो उसमें कुशलता और विशेषज्ञता मिल जाती है। बार- बार कार्य को बदलते रहने से कुछ भी लाभ नहीं होता, न काम ही अच्छा बनता है। अतः वेदों में चारों वर्णों के कर्मों का पृथक−पृथक वर्णन हैः-

”ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धाराय” (यजुर्वेद ३८- १४)
अर्थात् ”हमारे हित के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को धारण करो ।”

”उस विराट पुरुष (ईश्वर) के ब्राह्मण मुख हैं, क्षत्रिय भुजाएँ हैं, वैश्य उरु हैं और शुद्र पैर हैं”
(यजुर्वेद ३१- ११)

संसार में अनेक जातियाँ हैं, जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप, वृक्ष आदि। जब वृक्षों, पक्षियों, पशुओं, मछली आदि जलचरों की अनेक प्रजातियाँ पायी जाती हैं, तो ऐसा कैसे हो सकता है, कि मनुष्य जाति में भी अनेक वर्ण ना पाए जायें ?

आम का वृक्ष एक भिन्न जाति का होता है, किन्तु इस आम के भी अनेक वर्ण (प्रजातियाँ) पायी जाती हैं, सबका रूप, रंग, स्वाद, गुण भी भिन्न-भिन्न होता है।

यदि मनुष्य जाति में , एक ही वर्ण होते तो सभी मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ भी समान होती। जिस प्रकार, सभी ऊँटो को कण्टक (वृक्षों के अंकुर) के, सभी सूअरों को अभक्ष्य के, सभी शुकादि पक्षी को फल के, सभी गिद्धों को माँस के, भक्षण की एक सी प्रवृत्ति है, इस प्रकार की समान प्रवृत्ति सभी मनुष्यों में नहीं दिखती। किसी की तपस्या में, पठन-पाठन में, किसी की युद्ध में, किसी की व्यापार, खेती आदि में, किसी की सेवा करने आदि में भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ होती हैं, जो की स्पष्ट सूचित करता है, की मनुष्य जाति में अनेक वर्ण होते हैं।

क्या कोई चाहेगा की, आम के सभी भिन्न वर्ण (प्रजातियाँ) एक हो जाएँ, केवल मालदा-आम रहे शेष प्रजातियों को लोप हो जाए ?

क्या कोई चाहेगा की, अन्य सभी जातियाँ समाप्त हो जायें, केवल मनुष्य जाति रहे? कोई चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकता।

क्या होगा यदि समाज में सभी चिकित्सक, अध्यापक बन जाएँ ?
क्या होगा यदि समाज में सभी सेना, पुलिस में भर्ती हो जायें ?
क्या होगा यदि समाज में सभी व्यवसायी बन जाएँ ? (सम्प्रति यही हो रहा है।)
क्या होगा यदि समाज में सभी किसान बन जाएँ ?
ऐसे अनेक प्रश्न बनते हैं, जिसका उत्तर है की, “ऐसा हो ही नहीं सकता”, क्योंकि समाज में सभी मनुष्यों की रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, इन भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों से युक्त मनुष्यों को चार मुख्य विभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

* जिनकी रूचि मुख्यतः ज्ञान में हो। (ब्राहमण, अज्ञान का नाश करता है)

* जिनकी रूचि मुख्यतः बल में हो। (क्षत्रिय, अन्याय को मिटाता है)

* जिनकी रूचि मुख्यतः धन में हो। (वैश्य, अभाव को दूर करता है)
* जिनकी रूचि मुख्यतः सेवा में हो। (शूद्र, उपर्युक्त तीनों कार्यों को करने में असमर्थ होता है)

वर्ण का शाब्दिक अर्थ गुण, रंग, प्रवृत्ति होता है। मनुष्य जाति के ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहलाते हैं।

निरुक्त अध्याय-2, खण्ड-3 के अनुसार, “वर्णः वृणोते:” अर्थात् इनका नाम “वर्ण” इसीलिए है, कि जैसे जिसके गुण, कर्म, स्वभाव हों, वैसा ही उसको अधिकार देना चाहिए।

 

महाभारत काल में वर्ण व्यवस्था-

 

महाभारत काल में वर्ण- व्यवस्था प्रचलित थी ।। चारों वर्णों के कर्तव्य अनेक स्थलों पर बतलाये गये हैं ।। (देखिए महाभारत आदि पर्व ६४/८/३४) यह भी वर्णन आता है है कि सारे वर्ण अपने- अपने वर्णानुसार कर्म करने में तत्पर रहते थे और इस प्रकार आचरण करने से धर्म का ह्रास नहीं होता था (महा. आदि. ६४- २४) गीता में वर्ण- व्यवस्था का उल्लेख इस प्रकार किया गया हैः-

”चातुर्वर्ण्य मया सृष्टां गुणकर्मविभागशः ।”
”मैंने गुण, कर्म के भेद से चारों वर्ण बनाये ।”

इस प्रकार गुण- कर्म के अनुसार हमारे यहाँ वर्णों का विधान है।
ब्राह्मण वह है, जो अपनी विद्या, बुद्धि, और ज्ञान से समाज के अज्ञान और मूढ़ता को दूर करने का प्रण करता है। जो कमजोरी या दुर्बलता की कमी की पूर्ति करता है, वह क्षत्रिय है। सारे समाज की रक्षा का भार उस पर है।
हमारी जाति- पाती के काम का विभाजन मात्र है। जो कार्य करना जानता हो, वह वैसा ही कार्य करें, वैसी जाति में शामिल समझा जाये। आज इस व्यवस्था का दुरुपयोग हो रहा है। हमारे यहाँ अनेक उपजातियों बन गई है। ब्राह्मणों में ही दो सहस्र अवान्तर भेद है। केवल सारस्वत ब्राह्मणों की ही ४६९ शाखाएँ हैं। क्षत्रियों की ९९० और वैश्यों तथा शूद्रों की तो इससे भी अधिक उपजातियों है। इस संकुचित दायरे के भीतर ही विवाह होते रहते हैं। फल यह हुआ है कि इससे भारत की सांस्कृतिक एकता नष्ट हो गई है। कुछ व्यक्ति योग्यता या शुद्धाचरण न होते हुए भी अपने को ऊँचा और पवित्र मानने लगे हैं और कुछ अपने को नीच और अपवित्र समझने लगे हैं।

गुण- कर्म ही आदर तथा उच्चता के मापदण्ड हैं। गुण का ही सामाजिक सम्मान होना चाहिए, न कि जन्म का। शूद्र वर्ण का कोई व्यक्ति यदि अपनी योग्यता, विद्या, बुद्धि बढ़ा लेता है, तो उसका भी ब्राह्मण के समान आदर होना चाहिए। जन्म के कारण कोई बहिष्कार के योग्य नहीं हैं, महाभारत में युधिष्ठिर और यज्ञ के सम्वाद में कहा गया है-
”मनुष्य जन्म से ही ब्राह्मण नहीं बन जाता है, न वह वेदों के ज्ञान मात्र से ब्राह्मण बन जाता है। उच्च चरित्र से ही मनुष्य ब्राह्मण माना जाता है।”

 

ब्राह्मण वर्ण के कर्त्तव्य, कर्म और गुण-

 

अध्यापनमध्ययनम् यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रह चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् – मनुस्मृति अध्याय १ ||८८|| (५१)

शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानम् विज्ञानमास्तिक्यम् ब्रह्मकर्मस्वभावजम् — गीता अध्याय १८ श्लोक ४२

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति|
विद्यातपोभ्याम् भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति — मनुस्मृति अध्याय ५ ||१०९|| (१७)

अर्थात् ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में निम्नलिखित 15 कर्म और गुण अवश्य होने चाहिए:

1. वेदादि ग्रन्थ पढना
2. वेदादि ग्रन्थ पढाना
3. यज्ञ करना
4. यज्ञ कराना
5. दान देना
6. दान लेना (किन्तु प्रतिग्रह लेना नीच-कर्म है: विद्या देने हेतु दान लेना वह नीच कर्म है )
7. शम = मन से बुरे कार्य की इच्छा भी न करनी और उसको अधर्म में कभी प्रवृत्त न होने देना
8. दम = चक्षु और श्रोत्र आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से रोककर धर्म में चलाना
9. तप = सदा ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना
10. शौच = शरीर आदि की पवित्रता (पानी से शरीर, ज्ञान से बुद्धि, सत्य से मन, विद्या-तप से जीवात्मा की शुद्धि)
11. क्षान्ति = निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख, शीतोष्ण, क्षुधा-तृषा, हानि-लाभ, मान-अपमान आदि हर्ष-शोक छोड़कर धर्म में दृढ-निश्चय रखना
12. आर्जव = कोमलता, निरभिमान, सरलता
13. ज्ञानम् = वेदादि शास्त्रों को सांगोपांग पढ़कर, पढ़ाने का सामर्थ्य, सत्य-असत्य का निर्णय
14. विज्ञान = पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों को विशेषता से जानकार उनसे यथायोग्य उपयोग लेना।
15. आस्तिक्य = कभी वेद, ईश्वर, मुक्ति, पूर्व-परजन्म, धर्म, विद्या, सत्संग की निन्दा कभी न करना और माता, पिता, आचार्य और अतिथियों की सेवा को न छोड़ना।

 

क्षत्रिय वर्ण के कर्त्तव्य, कर्म और गुण-

 

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः। — मनुस्मृति अध्याय-१ ||८९|| (५२)

शौर्यं तेजोधृतिर्दाक्ष्यम् युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्मस्वभावजम् — गीता अध्याय-१८, श्लोक-४३

अर्थात् क्षत्रिय वर्णस्थ मनुष्यों में निम्नलिखित ११ कर्म और गुण अवश्य होने चाहिए:

1. रक्षा = पक्षपात छोड़कर न्याय से प्रजा की रक्षा, श्रेष्ठों का सत्कार, दुष्टों का तिरस्कार करना
2. दान = विद्या, धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना
3. इज्या = अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना
4. अध्ययन = वेदादि शास्त्रों का पढना तथा पढाना
5. विषयेष्वप्रसक्ति = विषयों में न फँसकर जितेन्द्रिय रहके सदा शरीर और आत्मा से बलवान रहना
6. शौर्य्य = सैकड़ों और सहस्त्रों से भी युद्ध करने में अकेले को भय न होना
7. तेजः = सदा तेजस्वी अर्थात् दीनतारहित प्रगल्भ दृढ रहना
8. धृति = धैर्यवान होना
9. दाक्ष्य = राजा और प्रजा सम्बन्धी व्यवहार और सब शास्त्रों में चतुर होना
10. युद्धे = युद्ध में दृढ निःशंक रहकर ऐसे लड़ना की विजय निश्चित हो, युद्ध से कभी पलायन न करना
11. ईश्वरभाव = पक्षपातरहित होकर सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करना, प्रतिज्ञा को पूरा करना, प्रतिज्ञा-भंग न होने देना।

 

वैश्य वर्ण के कर्त्तव्य, कर्म और गुण-

 

पशूनाम् रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथम् कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च। — मनुस्मृति अध्याय-१ ||९०|| (५३)

अर्थात् वैश्य वर्णस्थ मनुष्यों में निम्नलिखित 7 कर्म और गुण अवश्य होने चाहिए:

1. पशुरक्षा = गाय आदि पशुओं का पालन-वर्द्धन करना
2. दान = विद्या, धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना
3. इज्या = अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना
4. अध्ययन = वेदादि शास्त्रों का पढना तथा पढाना
5. वणिक्पथम् = सब प्रकार के व्यापार करना
6. कुसीदं = एक सैकड़े में चार, छह, आठ, बारह, सोलह वा बीस आनों से अधिक ब्याज और, मूल से दुगुना अर्थात् एक रूपया दिया हो तो सौ वर्षों में भी दो रुपये से अधिक न लेना न देना।
7. कृषि = खेती करना

 

शूद्र वर्ण के कर्त्तव्य, कर्म और गुण-

 

एकमेव हि शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत् ।
एतेषामेव वर्णानाम् शुश्रूषामनसूयया ।। — मनुस्मृति अध्याय-१ ||९१|| (५४)

अर्थात् शूद्र वर्णस्थ मनुष्यों का एक ही कर्म है, की निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़कर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों की सेवा यथावत् करना ।

 

”विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठतम क्षत्रियाणं तु वीर्यतः।”

अर्थात् ”ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से।” जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म- विद्या का अधिकारी समझा गया। अतः जाति- व्यवस्था की संकीर्णता छोड़ देने योग्य है। गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार ही वर्ण का निर्णय होना चाहिए।
ऐसी व्यवस्था रखने से सभी मनुष्य उन्नतिशील होते हैं, क्योंकि उत्तम वर्णों को भय होगा कि जो हमारे सन्तान मूर्खत्वादि दोषयुक्त होंगे तो शूद्र हो जायेंगे और शूद्र वर्ण आदि में भी उत्तम वर्णस्थ होने के लिए उत्साह बढेगा।

3 thoughts on “भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था”

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