गुरू अंगद देव जी सिखो के एक गुरू थे। गुरू अंगद देव महाराज जी का व्यक्तित्व सृजनात्मक था। उनमें ऐसी अध्यात्मिक क्रियाशीलता थी जिससे पहले वे एक सच्चे सिख बनें और फिर एक महान गुरु। गुरू अंगद साहिब जी (भाई लहना जी) का जन्म हरीके नामक गांव में, जो कि फिरोजपुर, पंजाब में आता है, वैसाख वदी १, (पंचम् वैसाख) सम्वत १५६१ (३१ मार्च १५०४) को हुआ था। गुरुजी एक व्यापारी श्री फेरू जी के पुत्र थे। उनकी माता जी का नाम माता रामो जी था। बाबा नारायण दास त्रेहन उनके दादा जी थे, जिनका पैतृक निवास मत्ते-दी-सराय, जो मुख्तसर के समीप है, में था। फेरू जी बाद में इसी स्थान पर आकर निवास करने लगे।
अंगद देव का पूर्व नाम लहना था। भाई लहणा जी के ऊपर सनातन मत का प्रभाव था, जिस के कारण वह देवी दुर्गा को एक स्त्री एंवम मूर्ती रूप में देवी मान कर, उसकी पूजा अर्चना करते थे। वो प्रतिवर्ष भक्तों के एक जत्थे का नेतृत्व कर ज्वालामुखी मंदिर जाया करता था। १५२० में, विवाह माता खीवीं जी से हुआ। उनसे उनके दो पुत्र – दासू जी एवं दातू जी तथा दो पुत्रियाँ – अमरो जी एवं अनोखी जी हुई। मुगल एवं बलूच लुटेरों (जो कि बाबर के साथ आये थे) की वजह से फेरू जी को अपना पैतृक गांव छोड़ना पड़ा। इसके पश्चात उनका परिवार तरन तारन के समीप अमृतसर से लगभग २५ कि॰मी॰ दूर स्थित खडूर साहिब नामक गांव में बस गया, जो कि ब्यास नदी के किनारे स्थित था।
एक बार भाई लहना जी ने भाई जोधा जी (सतगुर नानक साहिब के अनुयायी एक सिख) के मुख से गुरू नानक साहिब जी के शबद सुने और शब्द में कहे गए गुरमत के फलसफे से वो बहुत प्रभावित हुए। लहना जी निर्णय लिया कि वो सतगुर नानक साहिब के दर्शन के लिए करतारपुर जायेंगे। उनकी सतगुर नानक साहिब जी से पहली भेंट ने उनके जीवन में क्रांति ला दी। सतगुर नानक ने उन्हें आदि शक्ति या हुक्म का भेद समझाया और बताया की परमेशर की शक्ति कोई औरत या मूर्ती नहीं है बल्कि वोह वो रूप हीन है और उसकी प्राप्ति सिर्फ अपने अंदर से ही की जा सकती है। सतगुरु नानक से भाई लहने ने आत्म ज्ञान लिया जिस ने उन्हें पूर्ण रूप से बदल दिया।
वो सतगुर नानक साहिब की विचारधारा के सिख बन गये एवं करतारपुर में निवास करने लगे। वे सतगुर नानक साहिब जी के अनन्य सिख थे। सतगुर नानक देव जी के महान एवं पवित्र मिशन के प्रति उनकी महान भक्ति और ज्ञान को देखते हुए सतगुर नानक साहिब जी ने ७ सितम्बर १५३९ को गुरुपद प्रदान किया और गुरमत के प्रचार का जिम्मा सौंपा गया। सतगुर नानक के लडके इस बात से नाराज हुए और गुरु घर के विरोधी बन गए।
गुरू साहिब ने उन्हें एक नया नाम अंगद (गुरू अंगद साहिब) दिया। उन्होने गुरू साहिब की सेवा में ६ से ७ वर्ष करतारपुर में बिताये।
२२ सितम्बर १५३९ को गुरू नानक साहिब जी की ज्योति जोत समाने के पश्चात गुरू अंगद साहिब करतारपुर छोड़ कर खडूर साहिब गांव (गोइन्दवाल के समीप) चले गये। उन्होने गुरू नानक साहिब जी के विचारों को दोनों ही रूप में, लिखित एवं भावनात्मक, प्रचारित किया। विभिन्न मतावलम्बियों, मतों, पंथों, सम्प्रदायों के योगी एवं संतों से उन्होंने आध्यात्म के विषय में गहन वार्तालाप किया।
गुरू अंगद साहिब ने गुरु नानकदेव प्रदत्त पंजाबी लिपि के वर्णों में फेरबदल कर गुरूमुखी लिपि की एक वर्णमाला को प्रस्तुत किया। वह लिपि बहुत जल्द लोगों में लोकप्रिय हो गयी। उन्होने बच्चों की शिक्षा में विशेष रूचि ली। उन्होंने विद्यालय व साहित्य केन्द्रों की स्थापना की। नवयुवकों के लिए उन्होंने मल्ल-अखाड़ा की प्रथा शुरू की। जहां पर शारीरिक ही नहीं, अपितु आध्यात्मिक नैपुण्यता प्राप्त होती थी। उन्होने भाई बाला जी से गुरू नानक साहिब जी के जीवन के तथ्यों के बारे में जाना एवं गुरू नानक साहिब जी की जीवनी लिखी। उन्होने ६३ श्लोकों की रचना की, जो कि गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित हैं। उन्होने गुरू नानक साहिब जी द्वारा चलायी गयी ‘गुरू का लंगर’ की प्रथा को सशक्त तथा प्रभावी बनाया।
भारत के दूसरे मुगल सम्राट हुमायूं ने 1540 के आसपास गुरु अंगद का दौरा किया था, जब हुमयूं खानुआ की लड़ाई हार गया था और इस तरह मुगल सिंहासन शेर शाह सूरी के पास था। सिख इतिहास के अनुसार, जब हुमायूं खादुर साहिब में पहुंचा तो गुरू अंगद बैठे संगम के भजन सुन रहे थे। बादशाह को स्वागत सलाम न करना तुरंत हुमायूं को नाराज कर गया। हुमायूं ने गुस्से से अपनी नाराज़गी दर्ज कराई, लेकिन गुरु शांत रहे और उन्होंने उसे याद दिलाया कि “जिस समय आप अपना सिंहासन खो बैठे थे, तब लड़ने की ज़रूरत थी, पर आप भाग गए और लड़ाई नहीं की और अब आप प्रार्थना में लगे व्यक्ति पर हमला करना चाहते हैं?” कहा जाता है कि गुरू अंगद ने सम्राट को आशीर्वाद दिया और उसे आश्वस्त किया कि किसी दिन उसका सिंहासन वापस आ जाएगा !