आज हम आजाद भारत में सुकून की जिंदगी जी रहे है। भारत को अंग्रेजों से साल 1947 में आजादी मिली थी, लेकिन यह आजादी बहुत मुश्किल से मिली थी। इस आजादी के लिए हमने बहुत कुछ कुर्बान कर दिया। देश के हजारों युवाओं ने आजादी की बेला पर ख़ुशी ख़ुशी बगैर किसी की परवाह किये अपने प्राणो की आहुति दे दी। अपनी मातृभूमि के लिए अपना सबकुछ कुर्बान करने वाले ऐसे ही एक महान क्रांतकारी थे भगत सिंह।
भगत सिंह का नाम आते ही हमारे दिल में एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी का चेहरा सामने आता है जिन्होंने देश को आजादी दिलाने के लिए क्रांति का रास्ता चुना और फांसी को हंसते-हंसते स्वीकार किया. भगत सिंह ने उस समय युवाओं के दिल में क्रांति की जो मसाल जलाई थी उसे अद्वितीय माना जाता है. भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए क्रांति को ही सशक्त रास्ता बताया और खुद भी इसी पर चलते हुए शहीद हुए और शहीद-ए-आजम कहलाए।
भगतसिंह का जन्म-
भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७ में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। अमृतसर में १३ अप्रैल, १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी।
काकोरी काण्ड में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ सहित ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन । इस संगठन का उद्देश्य सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियां-
भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण देश के तमाम नवयुवकों की भाँति उनमें भी रोष हुआ और अन्ततः उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्ति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। बाद में वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि भी बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे।
लाला जी की मृत्यु का प्रतिशोध-
१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना सोची। सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गयी हो । दत्त के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० वी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।
१७ दिस्मबर १९२८ को करीब सवा चार बजे, स्काट की जगह, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठा। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया – “आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।” नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया।
महान व्यक्तित्व के स्वामी थे भगत सिंह-
जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी एवम् उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरियों पर दुःख व्यक्त किया था। उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किये गये अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पं० राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगत सिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया[4]। उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।[5] फाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था –
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।
सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
अगर गाँधी चाहते तो रुक सकती थी भगत सिंह की फांसी?
अगर गांधीजी ने भगतसिंह का साथ दिया होता और उनकी रिहाई के लिए आवाज उठाई होती तो मुमकिन है देश अपना एक होनहार युवा क्रांतिकारी नहीं खोता। भगत सिंह की मृत्यु के समय महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘मैंने किसी की जिंदगी को लेकर इतना रोमांच नहीं देखा जितना कि भगत सिंह के बारे में. हालांकि मैंने लाहौर में उसे एक छात्र के रूप में कई बार देखा है, मुझे भगत सिंह की विशेषताएं याद नहीं हैं, लेकिन पिछले एक महीने में भगत सिंह की देशभक्ति, उसके साहस और भारतीय मानवता के लिए उसके प्रेम की कहानी सुनना मेरे लिए गौरव की बात है.’ लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि ‘मैं देश के युवाओं को आगाह करता हूं कि वे उनके उदाहरण के रूप में हिंसा का अनुकरण नहीं करें.
उनके इस बयान के बाद यह सवाल देश के लगभग हर राज्य में गूंजा कि आखिर क्यूं गांधीजी ने देश के इस महान क्रांतिकारी को बचाने की दिशा में कार्य नहीं किया और क्यूं गांधीजी ने भगतसिंह की विचारधारा का विरोध किया?
इस सवाल के जवाब में कई लोग मानते हैं कि अगर महात्मा गांधी जी ने भगतसिंह का समर्थन किया होता तो उनकी खुद की विचारधारा पर सवाल खड़े होते और जिस अहिंसा के रास्ते पर वह बहुत ज्यादा आगे बढ़ चुके थे उस पर वह पीछे नहीं मुड़ सकते थे. इस चीज से साफ है कि गांधीजी और भगतसिंह की विचारधारा ही वह मुख्य वजह रही जिसकी वजह से दोनों के बीच टकराव हुए और गांधीजी ने भगतसिंह से दूरी बनाना ही सही समझा. भगत सिंह हिंसा और क्रांति को ही अपना रास्ता बनाना चाहते थे जबकि महात्मा गांधी अहिंसा के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं अपनाना चाहते थे।
अंतत: भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 23 मार्च, 1931 को ही फांसी दे दी गई. यह फांसी यूं तो 24 मार्च, 1931 की सुबह फांसी दी जानी थी लेकिन ब्रितानिया हुकूमत ने नियमों का उल्लंघन कर एक रात पहले ही तीनों को चुपचाप लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया था.
अंग्रेजों ने भगतसिंह को तो खत्म कर दिया पर वह भगत सिंह के विचारों को खत्म नहीं कर पाए जिसने देश की आजादी की नींव रख दी। आज भी देश में भगतसिंह क्रांति की पहचान हैं।