rohigya bhartlalkaar

रोहिंग्या मुसलमानों पर दिखावटी है मुस्लिम देशों का विरोध..इस्लाम की विस्तारवादी राजनीती का हिस्सा

म्यांमार में रोहिंग्या संकट पर मुस्लिम देशों में प्रदर्शन हो रहे हैं। लेकिन अपने यहां अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर ये देश खामोश रहते हैं। डॉयचे वेले के शामिल शम्स कहते हैं, कि रोहिंग्या संकट का इस्लामीकरण नहीं होना चाहिए।

तुर्की से लेकर पाकिस्तान तक मुस्लिम देशों के नेताओं ने म्यांमार के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या लोगों के खिलाफ सुरक्षा बलों के अभियान की निंदा की है जिसके कारण लगभग तीन लाख लोग इलाके को छोड़ कर भागने पर मजबूर हुए हैं। ऐसे में, म्यांमार की नेता आंग सान सू ची से शांति का नोबेल वापस लेने तक की मांगें भी तेज हो रही हैं।

म्यांमार में रोहिंग्या लोगों के साथ जो कुछ हो रहा है, वह निंदनीय है। लेकिन इसके लिए मुस्लिम देशों का रवैया भी कम जिम्मेदार नहीं है।अगर मुस्लिम बहुल देशों का रिकॉर्ड देखें तो उनके यहां धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ कोई अच्छा सलूक नहीं होता है। पिछले दिनों ही पाकिस्तान के क्वेटा शहर में हजारा शिया समुदाय के तीन लोगों की हत्या कर दी गयी।

दरअसल पाकिस्तान में तो इस्लामी कट्टरपंथी बरसों से अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बना रहे हैं, और सरकार ने कभी उनकी तकलीफों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। हिंदू,  ईसाई और अहमदिया लोगों के साथ भेदभाव दशकों से हो रहा है।

rohigya bhartlalkaar

पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून की वजह से अल्पसंख्यक समुदाय के लोग लगातार डर के माहौल में जीते हैं। पाकिस्तान में मुसलमानों ने ईसाइयों की बस्तियों में आग तक लगायी हैं, और हिंदू समुदाय के लोगों को इस्लाम या उसके पैगंबर मोहम्मद का “अपमान” करने पर सरेआम कत्ल कर दिया जाता है। अन्य मुस्लिम देशों में भी धर्मपंथ के आधार पर उत्पीड़न लगातार बढ़ रहा है। इंडोनेशिया और मलेशिया में राजनीतिक इस्लाम का उभार इन देशों में सांस्कृतिक बहुलतावाद के लिए खतरा है।

लेकिन इंडोनेशिया, मलेशिया और पाकिस्तान में कट्टरपंथी इस्लामी समूह म्यांमार में रोहिंग्या लोगों के साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। पर पड़ोसी मुस्लिम बहुल बांग्लादेश भी उन्हें आसानी से स्वीकार नहीं करता। यह बहुत बड़ी मानवीय त्रासदी है। लेकिन जो रोहिंग्या लोगों की समस्या को धार्मिक रंग दे रहे हैं, वे इस समुदाय की मुश्किलों को बढ़ाने के अलावा कुछ और नहीं कर रहे हैं। यह लड़ाई बौद्ध धर्म और इस्लाम के बीच नहीं है।

तथ्य यह है कि पश्चिमी सरकारें, उनके संस्थान और मानवाधिकार संगठन रोहिंग्या लोगों की आवाज को उठा रहे हैं और वह भी शुरू से जब 2012 में रखाइन में यह संकट शुरू हुआ। म्यांमार और बांग्लादेश में अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसियां ही रोहिंग्या लोगों की ज्यादा मदद कर रही हैं, जबकि जिहादी समूह, तुर्की के राष्ट्रपति रैचेप तैयप एर्दोआन और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी सिर्फ बयानबाजी कर रहे हैं।

दुनिया भर में मुसलमानों की समस्याओं पर इस्लामी संगठनों का रवैया भी एक जैसा नहीं होता. मध्य पूर्व के गरीब देश यमन में शिया लोगों पर जब बमबारी की गयी तो सऊदी अरब के किसी सहयोगी देश ने इसका विरोध नहीं किया. 2015 से अब तक यमन में हजारों लोग मारे जा चुके हैं, लेकिन पाकिस्तान सरकार या फिर खाड़ी देशों की तरफ से सऊदी अरब की कभी आलोचना नहीं की गयी।

सीरिया और इराक के संकट पर भी मुस्लिम देशों का रवैया इस बात पर निर्भर करता है, कि वे सऊदी अरब के करीब हैं या फिर ईरान के इस्लामी कट्टरपंथियों की वजह से जो मानवीय त्रासदी, नरसंहार और अत्याचार हो रहे हैं, उन्हें भी मुस्लिम देश अकसर सांप्रदायिक चश्मे से ही देखते हैं। रोहिंग्या लोगों के नरसंहार पर भी यही दोहरा रवैया दिखता है।

एक मानवीय संकट को धार्मिक मुद्दा बनाने की कोशिश हो रही है। रखाइन का यह संकट कभी इस्लाम बनाम बौद्ध धर्म नहीं रहा है। यह एक आर्थिक और राजनीतिक मुद्दा है, जिसका यह इलाका कई दशकों से शिकार है। अब इस मामले में जिहादी तत्व भी घुस चुके हैं, लेकिन इसकी कीमत रोहिंग्या लोगों को ही चुकानी पड़ रही है। 25 अगस्त को म्यांमार के सुरक्षा बलों पर हमला करने वाले गुट अराकान रोहिंग्या सैलवेशन आर्मी के जिहादी संगठनों से रिश्ते हैं। ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि रोहिंग्या चरमपंथियों के सऊदी अरब, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी लिंक हैं।

पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जिहादी गुट रोहिंग्या लोगों के नाम पर चंदा जमा करते हैं। इंडोनेशिया के चरमपंथी भी इस मामले में शामिल हो रहे हैं। इनमें से बहुत से लोगों के अल कायदा और तथाकथित इस्लामी स्टेट से रिश्ते हैं। म्यांमार की सरकार कह रही है, कि वह सिर्फ जिहादी खतरे से निपट रही है। एक हद तक यह बात सही भी है, लेकिन म्यांमार की सरकार इसके जरिए रोहिंग्या लोगों के उत्पीड़न को भी उचित ठहराने की कोशिश करती है।

कोशिश कूटनीतिक तरीकों और मानव अधिकार संगठनों के हस्तक्षेप से इस समस्या को सुलझाने की होनी चाहिए। लेकिन इसके उलट मुस्लिम देश म्यांमार को लेकर जिहादी गुटों के रुख को ही सही ठहरा रहे हैं। यह बात रोहिंग्या लोगों के हित में कभी नहीं हो सकती, जो पहले से ही म्यांमार के अधिकारियों के हाथों उत्पीड़न और शोषण का शिकार बन रहे हैं।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *