हिंदी-दिवस के अवसर पर जानिए अंग्रेज सरकार में कलेक्टर रहे हिन्दी गद्य शैली के निर्माता राजा लक्ष्मण सिंह जी के बारे में…
राजा लक्ष्मण सिंह का जन्म आगरा के वजीरपुरा नामक स्थान में 9 अक्टूबर 1826 ई. को हुआ था। 13 वर्ष की अवस्था तक राजा साहब घर पर ही संस्कृत और उर्दू की शिक्षा ग्रहण करते रहे और सन् 1839 में अंग्रेजी पढ़ने के लिए आगरा कालेज में प्रविष्ट हुए। कालेज की शिक्षा समाप्त करते ही पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गर्वनर के कार्यालय में अनुवादक के पद पर नियुक्त हुए। वहा राजा साहब ने बड़ी योग्यतापूर्वक कार्य किया और सन 1855 में इटावा के तहसीलदार नियुक्त हुए। 1870 ई. में राजभक्ति के परिणामस्वरूप लक्ष्मण सिंह जी को “राजा” की उपाधि से सम्मानित किया गया।
राजा लक्ष्मण सिंह 10 से अधिक साहित्यिक भाषाओं के ज्ञानी थे। उन्होंने कालिदास की कई रचनाओं को हिंदी में अनुवाद किया था। कई पुस्तकों के लेखक और प्रसिद्ध साहित्यकार राजा लक्ष्मण सिंह जी का नाम वजीरपुरा के बच्चे नहीं जानते, लेकिन उनकी पीली कोठी को बखूबी पहचानते है। पीली कोठी के रूप में राजा साहिब की यादें अभी भी जिंदा है। उनके वंशज आज भी उनकी कृतियों को सहेज कर रखे हुये है।
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आगरा के बाजीरपुरा मुहल्ले में पीले रंग में पुती बड़ी सी हबेली ही पीली कोठी है। भारतेंदु हरिश्चंद युग से पूर्व की हिंदी गद्य की विकास यात्रा में हिंदी गद्य को समृद्ध करने और नई दिशा देने वालों में राजा लक्ष्मण सिंह का अविस्मरणीय योगदान रहा है। ऐसा माना जाता है आज जो सरकारी कामकाज में हिंदी प्रचलित है वह राजा लक्ष्मण सिंह की ही देन है।
पारवारिक पृष्ठभूमि-
आधुनिक हिंदी के अनूठे गद्य शिल्पी राजा लक्ष्मण सिंह का जन्म 9 अक्टूबर ,1826 को आगरा के वजीरपुरा में राजपूत जमींदार परिवार में ठाकुर रूपराम सिंह के यहां हुआ था। इनके पूर्वज बयाना के राजा बिजयपाल के वंशज रितपाल थे जो रिठाड़ गाँव में रहे जिनके वंशज दुगनावत जादौन कहलाये जो आजकल आगरा के वजीरपुरा और धनी की नगलिया में रहते है।
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जानकारी के अनुसार जब मचेरी (अलवर ) के राजा का भरतपुर के राजा के साथ युद्ध हुआ था तब मचेरी की सेना ने इनका पैतृक निवास स्थान करेमना को जला दिया गया। इनके पूर्वज कल्याण सिंह ने भरतपुर में आश्रय प्राप्त किया। इनके बड़े पुत्र को राजा भरतपुर के द्वारा रूपवास परगने का फोतेहदर नियुक्त किया गया। लेकिन उनकी शीघ्र मृत्यु हो गई। कल्याण सिंह के छोटे पुत्र जो राजा लक्ष्मण सिंह के ग्रांडफादर थे, उन्होंने सिंधिया की फ़ौज में नौकरी प्राप्त कर ली। अंग्रेजों के द्वारा अलीगढ के किले पर जब अधिकार कर लिया गया तो उससे कुछ समय पूर्व उनकी मृत्यु अलीगढ में हो चुकी थी और उनके पुत्र आगरा में आ गये।
राजा लक्ष्मण सिंह की शिक्षा-
राजा साहब की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही सम्पन्न हुई थी। इन्होंने आगरा कॉलेज आगरा से सीनियर परीक्षा पास की यह बात सन् 1838ई0 के लगभग की है। राजा साहब को संस्कृत, अँग्रेजी, प्राकृत, ब्रजभाषा, फ़ारसी, अरबी, उर्दू, गुजराती,व् बंगला आदि भाषाओँ का अच्छा ज्ञान था। आगरा कालेज से अग्रेजी व् संस्कृत की पढ़ाई पूरी करने के बाद राजा साहब ने 1847 ई0 में सरकारी सेवा में प्रवेश किया।
1- राजा साहब सर्वप्रथम 1850 ई. में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर के दफ्तर में 100 रूपये मासिक वेतन पर अनुवादक के पद पर नियुक्त हुये।
2- राजा साहब योग्य, कर्मठ व् कार्य कुशल थे। अतः थोड़े दिनों बाद सन् 1855 ई. में राजा लक्ष्मण सिंह को इटावा का तहसीलदार बना दिया गया प्रतिभा के धनी राजा साहब निरंतर आगे बढते गये और सन् 1856 में बांदा के डिप्टी कलेक्टर के पद पर पहुँच गये।
3- सन् 1886 ई. में राजा लक्ष्मण सिंह को उनके कार्यशैली और कुशल प्रशासनिक क्षमताओं को देख कर उनको बुलन्दशहर का कलक्टर बनाया गया। तत्कालीन पार्लियामेंट ने इसका विरोध किया, लेकिन वह 20 वर्ष तक बुलंदशहर के कलक्टर रहे। उन्होंने बुलहंदशहर का गजेटियर भी लिखा।
4- 1 जनवरी सन् 1877 ई0 को राजा साहब को दिल्ली दरवार में गवर्नर जनरल वायसराय ने “राजा “का खिताव प्रदान किया।
अंग्रेजी हुकूमत में होते हुए भी अंग्रेजियत के खिलाफ थे राजा साहब-
राजा साहब एक सफल प्रशासनिक अधिकारी के साथ- साथ हिंदी- संस्कृत साहित्य के महान् साधक भी थे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन भी किया। यही नही उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उस ज़माने में बहुत सराहनीय कार्य किये। इटावा में रहते हुये उन्होने हिंदी, उर्दू, और अंग्रेजी में एक पत्र निकाला, जिसकी 30 हजार प्रतियां प्रकाशित होती थी। हिंदी में इस पत्र का नाम “प्रजा-हितैषी” था।
प्रजा-हितैषी का सम्पादन राजा साहब स्वयं करते थे। ये पत्र सन् 1860 से 1864 ई0 तक लगातार 4 वर्ष प्रकाशित हुआ। सन 1861 ई0 में उन्होंने कालिदास के नाटक “अभिज्ञान शाकुन्तलम् “का शकुन्तला नाम से हिंदी में अनुवाद अपने इटावा प्रवास काल में किया था। इसके बाद राजा साहिब को बुलन्दशहर स्थानांतरित कर दिया और ये पत्र बंद हो गये।
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राजा लक्ष्मण सिंह बुलंदशहर में 20 वर्ष तक कलक्टर के पद पर कार्यरत रहे। उन्होंने वहां की जनता की अंग्रेजी हुकूमत में भी खुल कर मदद की। वह हर तरह की आपदा में लोगों की मदद किया करते थे। उनके अंदर राष्ट्रवादी विचारधारा कूट कूट कर भरी हुई थी। सन् 1882 ई0 में उन्होंने कालिदास के रघुवंश और मेघदूत का भी हिंदी में अनुवाद किया। वे उर्दू साहित्य के भी ज्ञाता थे। उर्दू में उनकी सर्वाधिक कृतियाँ है। इनमे कैफियत -ए -जिला बुलहंदशर, किताबखाना -शुमार -ए -मुगरबी ,वास्ते डिप्टी मजिस्ट्रेट, कीप विट्स, मजिस्ट्रेट गाइड के अलाबा और भी किताबें लिखी।
सन् 1887 ई0 में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के फैलो, एशियार्तिक सोसाइटी के सदस्य और आगरा नगर पालिका के उपाध्यक्ष रहे। राजा साहब अंग्रेजी हुकूमत की नौकरी करने के बावजूद वे अंग्रेजियत के खिलाफ लगातार अपनी आवाज बुलंद करते रहे।
हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में राजा साहब की गूंज-
अंग्रेजी हुकूमत इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों को शामिल नही करती थी। इस पर लन्दन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में बहस हुई। अंग्रेज अफसरों ने भारतीयों को लेजी और कामचोर कह कर संबोधित किया। तब इटावा के कलक्टर और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष ऐओ ह्यूम ने इस पर कडा विरोध जताया। उन्होंने राजा लक्ष्मण सिंह का उदाहरण देते हुये कहा कि उनके जिले में अनुवादक एक युवक हमारी सोच से कहीं ज्यादा ऊर्जावान है। ह्यूम ने कहा कि कुंवर लक्ष्मण सिंह में फिजिकल और मेन्टल इनर्जी भरी पडी है जो घोड़े की पीठ पर बैठ कर उनसे पहले आगरा पहुँच जाते है।
सरकारी कामकाज में हिंदी का चलन-
हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलवाने को संविधान सभा और बाद नें संसद में लड़ी लड़ाई तो सर्व विदित है किन्तु यह तथ्य अभी हाल ही में अनावरित हुआ है कि सरकारी कामकाज में हिंदी उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने की आधिकारिक शुरुआत सन् 1860 ई0 में ही हो गयी थी और इसके लिए आगरा के वजीरपुरा ठिकाने से जुड़े प्रख्यात साहित्यकार हिंदी सेवी राजा लक्ष्मण सिंह की भूमिका अहम् थी। इटावा में डिप्टी कलक्टर की हैसियत से ही सन् 1860 ई0 में राजा साहब ने पटवारियों को हिंदी में खसरा -खतौनी आदि भूमि संबंधी रिकार्ड रखने के निर्देश दिया था। यह हिंदी के प्रति उनकी आस्था का प्रतीक था।
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प्रशासनिक सेवा में रहते हुये भी राजा साहब ने माँ सरस्वती की आराधना कर हिंदी साहित्य भंडार को समृद्ध किया और हिंदी भाषा का परचम पुरे देश में फहराया। यह हर हिंदुस्तानी के लिए अत्यंत गौरव की बात है। यह उनके प्रतिभा संपन्न महान व्यक्तित्व का प्रतीक भी है। उनके शाकुन्तलम् नाटक को तो बहुत समय तक भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा के पाठ्यक्रम में भी रखा गया था।
राजा साहब बुलन्दशहर के कलक्टर के पद से सन् 1888 में अवकाश प्राप्त कर आगरा आ गये थे। 70 वर्ष की आयु में 14 जुलाई 1896 ई0 को अपनी अंतिम कर्मभूमि बुलन्दशहर में गंगा जी के किनारे राजघाट पर उनका देहावसान हो गया था। अपने महाप्रयाण के एक माह पूर्व राजा साहब गंगा मैया की शरण में गंगा तीर चले गये थे। आज भी राजा साहब का परिवार आगरा में प्रतिष्ठित परिवार माना जाता है।
राजा साहब के पिता ठाकुर रूपराम सिंह जी की “पीली कोठी ” आज भी आगरा में अपनी पुरातन पहचान बनाये हुये है। आज भी आगरा का हर नागरिक पीली कोठी के नाम को जानता है। उस ज़माने में ठाकुर साहब की पीली कोठी पर बहुत से लोग उर्दू में अपनी चिठीयां पढ़वाने अक्सर उनके पास आते थे और लोगों को राजा साहब के पूज्य पिताजी का मार्गदर्शन प्राप्त होता था। इस परिवार के लोग बेसहारा ,सताये हुये और गरीब लोगों की खुले दिल से सहायता करते थे। इस कारण इस परिवार का लोग काफी सम्मान करते थे और आज भी करते है। अंत में, आज हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी गद्य के इस महान शलाका पुरुष की स्म्रति में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए तहे दिल से सत् सत् नमन करता हूँ।
लेखक- डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन