हमारे पुराणों में 51 महाशक्ति पीठ व 26 उप पीठों का वर्णन मिलता है। इनको शक्ति पीठ या सिद्ध पीठ भी कहते हैं। इन्ही में से एक है दधिमथी पीठ है, जो कपाल पीठ के नाम से भी जानी जाती है। पौराणिक मान्यतानुसार यह मंदिर 2000 वर्ष पुराना है। यह मंदिर राजस्थान में नागौर जिले की जायल तहसील में गोठमांगलोद गांव में जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर उत्तर-पूर्व दधिमथी माता नाम का प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर स्थित है।
ऐसी मान्यता है कि त्रेता युग में अयोध्यापति राजा मान्धाता ने यहां एक सात्विक यज्ञ किया। उस समय माघ शुक्ला सप्तमी थी, देवी प्रकट हुई, जो दधिमथी के नाम से जानी जाती है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विकटासुर नाम का दैत्य संसार के समस्त पदार्थों का सारतत्व चुराकर दधिसागर में जा छुपा था। तब देवताओं की प्रार्थना पर स्वयं आदिशक्ति ने अवतरित होकर उस दैत्य का वध किया और सब पदार्थ पुनः सत्वयुक्त हुए। दधिसागर को मथने के कारण देवी का नाम दधिमती पड़ा। अन्य जनश्रुतियों के अनुसार कपालपीठ कहलाने वाला माता का यह मंदिर स्वतः भूगर्भ से प्रकट हुआ है। तो एक अन्य जनश्रुति के अनुसार प्राचीनकाल में राजा मान्धाता द्वारा माघ शुक्ल सप्तमी को किये गए एक यज्ञ के समय यज्ञकुण्ड से पैदा होने की किवदंती प्रचलित है।
शिलालेख के अनुसार इसका निर्माण गुप्त सम्वत् 289 को हुआ, जो करीब 1300 वर्षों पूर्व मंदिर शिखर का निर्माण हुआ। सम्वत 608 में 14 दाधीच ब्राह्मणों द्वारा 2024 तत्कालीन स्वर्ण-मुद्राओं से इसका गर्भगृह व 38 स्तम्भों का निर्माण हुआ।
क्षत्रियों की कुलदेवी के रूप में प्रसिद्द हैं दधिमती माता-
भारतीय स्थापत्यकला एवं मूर्तिकला का गौरव, प्रतिहारकालीन मंदिर स्थापत्य मूर्तिकला का सुन्दर उदाहरण, प्राचीन भारतीय वास्तुकला की उत्कृष्ट कला का प्रतिनिधित्व करता है। राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार ‘‘इस मंदिर के आस-पास का प्रदेश प्राचीनकाल में दधिमती (दाहिमा) क्षेत्र कहलाता था। उस क्षेत्र से निकले हुए विभिन्न जातियों के लोग, यथा ब्राह्मण, राजपूत, जाट आदि दाहिमे ब्राह्मण, दाहिमे राजपूत, दाहिमे जाट कहलाये, जैसे कि श्रीमाल (भीलमाल) नगर के नाम से श्रीमाली ब्राह्मण, श्री महाजन आदि।
ब्राह्मण, जाट व अन्य जातियों के अलावा दाहिमा व पुण्डीर राजपूत दधिमती माता को अपनी कुलदेवी मानते हुए इसकी उपासना करते है। चूँकि दाहिमा राजपूत इसी क्षेत्र से निकले होने के कारण दाहिमा कहलाये। दाहिमा राजपूतों के अलावा पुण्डीर राजपूत भी दधिमता माता को कुलदेवी मानते है और माता की पूजा-आराधना-उपासना करते है।
जानिये कैसे प्रकट हुईं माता-
देवी के वर्तमान मंदिर की मूर्ति के बारे में कहते हैं देवी के प्रकट होने से पहले वहाँ आकाशवाणी हुई जिसमें देवी ने गाय चरा रहे ग्वाले को कहा कि “मैं विश्व के कल्याण हेतु प्रकट हो रही हूँ” तभी जमीन के फटने से वहां सिंह गर्जना हुई। उसी के साथ देवी का कपाल (मस्तिष्क) बाहर निकल गया जब भागने लगी तब ग्वाला ने कहा- माता रुक जाओ। उसके कहने से भगवती का केवल (मस्तिष्क) कपाल ही बाहर आया। उस समय गायों के दूध से उसका अभिषेक किया गया। आज भी पूरे भारत में यह दधिमथी माता का एक ही मंदिर है, जहां दूध से अभिषेक होता है।
हवा में झूल रहे मंदिर के खम्भे-
आज तक आपने जितने भी खम्भे या पिलर देखे होंगे उनमे आपने यही देखा होगा कि खम्बे आधार हेतु बनते है लेकिन यहाँ आप खम्बे को हवा में झूलते देख सकते है मान्यता है कि जिस दिन यह खम्भ पृथ्वी से छू जाएगा उस दिन प्रलय होगी और चहु ओर विनाश ही विनाश होगा।
चमत्कारिक कुण्ड –
दधिमती का कपाल के चारो ओर छोटा सा कुण्ड है इस कुंड की विशेषता है इसमें कितना भी दूध डाला जाए दूध इससे बाहर नही आता यही वजह है कि नवरात्रि में सेंकडो लीटर टैंकर के टैंकर ही माता का अभिषेक करते है जितने दूध से अभिषेक होता है पुनः उतना ही प्राप्त होता है।
माता की सेज शय्या-
नवरात्रि पर्व में हर रात्रि में मंदिर बंद करने से पूर्व सेज शय्या सजाया जाता है जिस पर मलमल की नई चद्दर पर फूल सजाये जाते है और मंदिर का द्वार बन्द कर दिया जाता है। सुबह जैसे ही द्वार खोलते है तो फूल बिखरे हुए और चद्दर पर सलवटे देखी जा सकती है। मान्यता है माता भगवती ही अपने भक्तों द्वारा लगाए गए इस बिस्तर पर शयन करने आती है जिन्हें कोई देख नही सकता पर अनुभव जरूर कर सकता है।
ऐसी मान्यता है कि मुख्य नवरात्रि की सप्तमी को जो कोई महाआरती के बाद यहां नहाता है उसको गंगा, यमुना, नर्मदा सहित सभी पुण्यशाली नदियों में नहाने का फल मिलता है। यह कुंड कभी सूखता नही है और ना ही कभी इसका जल ऊपर की सीढ़ी पार करता है इसकी गहराई को कोई नही नाप सकता क्योंकि इस गहराई अथाह है।
पूजा, उत्सव और मेले-
चैत्र और आश्विन के नवरात्रों में यहाँ मेलों का आयोजन होता है, जिनमें बड़ी संख्या में माता के भक्त, श्रद्धालु दर्शनार्थ यहाँ आते है।
यहां प्रत्येक नवरात्रों में चैत्र व आसोज में मेला लगता है, जो पूरे नौ दिनो तक चलता है। इसमें पूरे भारत-वर्ष के दाधीच बन्धुओं के अलावा सभी वर्गों के लोग आकर मां के दर्शन करते हैं।