भारत और चीन के मध्य डोकलाम विवाद आखिर सुलझ गया है, और दोनों देश विवादित जगह से अपनी-अपनी सेनाएं हटाने पर राज़ी हो गए हैं। कूटनीति की दृष्टि से ये भारत की बड़ी जीत है। पूरी दुनिया भारत की परिपक्वता की सराहना कर रहा है।
भारत और चीन दोनों देशो को अच्छी तरह से पता था कि यदि युद्ध होता है तो भारत और चीन को आर्थिक मोर्चे पर भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। चीन-भारत का एक बड़ा ट्रेड और बिजनेस पार्टनर है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच इसमें तेज़ी से वृद्धि हुई है।
मिनिस्ट्री ऑफ कॉमर्स के अनुसार दोनों देशों के बीच होता है 75 बिलियन का व्यापार-
आधिकारिक डेटा के मुताबिक, दोनों देशों के बीच करीब 75 बिलियन डॉलर का व्यापार होता है। हालांकि इसमें ट्रेड डेफिसिट है। मतलब, हमारा आयात चीन के निर्यात से ज्यादा है।
मिनिस्ट्री ऑफ कॉमर्स के मुताबिक वर्ष 2016-17 में भारत ने कुल 61.3 बिलियन का चीन से आयात किया है। उसी वर्ष के दौरान भारत ने चीन को 10.2 बिलियन का निर्यात किया गया। ऐसे में भारत को प्रतिवर्ष करीब 51.1 बिलियन का नुकसान उठाना पड़ता है, जो कि चीन के लिए फायदेमंद है। इसलिए चीन कभी भारत के साथ अपने संबंध नहीं बिगाड़ना चाहेगा।
आइये अब जानते है कैसे हुई डोकलाम डील-
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल 27 जुलाई को जब पेइचिंग में चीन के स्टेट काउंसिलर यांग जीची से मिले तो चीनी अफसर ने उनसे डोकलाम मसले पर बड़े ही रूखेपन से पूछा था, ‘क्या यह आपका क्षेत्र है?’ डोकलाम में चल रहे गतिरोध को दूर करने के लिए दोनों देशों के बीच वह पहला कूटनीतिक प्रयास था।
यांग जीची के सवाल में चीनी जिद की बू आ रही थी। भूटान, भारत और चीन के ट्राइजंक्शन पर स्थित उस हिस्से में सड़क निर्माण के जरिए यथास्थिति को बदलने की जिद, जिसे भारत भूटान का हिस्सा मानता है। डोभाल पर उस रूखेपन का कोई असर नहीं पड़ा।
सूत्रों के मुताबिक डोभाल ने कहा था जिस जगह को लेकर विवाद हो रहा है वह चीन का है ही नहीं। सूत्रों ने बताया कि डोभाल ने जीची को जवाब दिया, ‘क्या हर विवादित क्षेत्र अपने आप चीन का हिस्सा हो जाता है?’
डोभाल ने जोर देकर कहा कि वह क्षेत्र भूटान का है और हिमालयी देश के साथ समझौते की वजह से भारत उसकी सुरक्षा की देखभाल के लिए प्रतिबद्ध है। एनएसए ने यह भी कहा कि डोकलाम को लेकर चीन और भूटान के बीच कई राउंड की बातचीत हो चुकी है। यहां तक कि चीन ने डोकलाम के बदले भूटान को 500 वर्ग किलोमीटर का दूसरा इलाका देने की पेशकश की थी।
डोभाल ने चीनी अफसर से कहा कि डोकलाम पर भूटान और चीन में विवाद कायम है, लिहाजा यथास्थिति की बहाली के लिए भारत और चीन दोनों ही अपनी-अपनी सेनाओं को पीछे बुलाएं।
डोकलाम में भारत झुकता तो बहुत कुछ गंवा देता –
दरअसल इस विवाद में भारत के पास डटे रहने या फिर बहुत कुछ गंवाने के लिए तैयार रहने का विकल्प था। ऐसे में भारत ने डटे रहने का विकल्प अपनाया और चीन की युद्घ की धमकी और दबाव का मौन कूटनीति के जरिए सफलतापूर्वक सामना किया।
ऐसा नहीं है कि भारत ने चीन की धमकियों का जवाब नहीं दिया। भारत ने इस मामले में चीन से जुबानी जंग में उलझने के बदले कूटनीतिक चैनल से लगातार हर स्थिति का सामना करने के लिए पूरी तरह से तैयार रहने का बार-बार संदेश दिया।
चीन की सार्वजनिक ना के बाद जी-20 सम्मेलन में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पीएम नरेंद्र मोदी की मुलाकात ने भारत की कूटनीतिक सफलता के सही राह पर होने का संदेश दिया। इस पूरे मामले से जुड़े एक अधिकारी के मुताबिक भारत को पता था कि भूटान के क्षेत्र में चीनी सेना को निर्माण कार्य रोकने पर मजबूर करने पर कूटनीतिक तनातनी बढ़ेगी।
चूंकि डोकलाम सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण था और वहां चीन का कब्जा भारत की सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी थी। इसके अलावा यह भारत की पड़ोसी देशों में ही नहीं बल्कि दुनिया में बनी साख का भी सवाल था। ऐसे में डोकलाम क्षेत्र में सेना भेजने के साथ ही भारत ने चीन के हर दांव से पार पाने की ठोस कूटनीतिक, सामरिक और राजनीतिक रणनीति तैयार कर ली थी।
एक बार डोकलाम में डटने के बाद पीछे हटने का मतलब विस्तारवादी नीति के लिए कुख्यात चीन को भारत को बार-बार परेशान करने का मौका देना भी था। इस मोर्चे पर पीछे हटने का मतलब चीन का न सिर्फ भुटान और नेपाल में दखल बढ़ने का अंदेशा था, बल्कि भारत से दशकों पुराने सीमा विवाद मामले में भी उसके आक्रामक तेवरों में और बढ़ोत्तरी की भी पूरी संभावना थी।
यही कारण है कि भारत ने एक बार डोकलाम में सेना की तैनाती के बाद इसी शर्त पर पीछे हटने का प्रस्ताव रखा जब चीन भी साथ-साथ अपनी सेना को पीछे हटने का निर्देश दे। भारत को पता था कि चीन भारत पर दबाव बनाने के लिए युद्घ की धमकी से ले कर कई अन्य तरह के दांव आजमाएगा। उसकी पूरी कोशिश भारत को जुबानी जंग में उलझाने की भी थी।
जी-20 सम्मेलन में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पीएम नरेंद्र मोदी की बातचीत में कोई हल नहीं निकला, मगर इससे यह संदेश जरूर मिला कि भारत की मौन रह कर अपने स्टैंड पर डटे रहने की कूटनीति काम कर रही है। क्योंकि तब चीन ने आधिकारिक रूप से जिनपिंग-मोदी मुलाकात की संभावना को खारिज किया था। इसके बावजूद मुलाकात से यह संदेश गया कि चीन इस विवाद को सुलझाने का इच्छुक है।