भारत की महानतम पवित्र भूमि ने इस भूमि को ऐसे दिव्य रत्न प्रदान किए हैं जिनकी मनीषा और विलक्षणता ने समस्त संसार को चौंका दिया है। आज भी उनकी बुद्धिमत्ता और ज्ञान आज के वैज्ञानिको के लिए रहस्य का विषय हैं। ज्योतिष भारत की समृद्ध और यशस्वी परंपरा है।
भारतीय ज्योतिष (Indian Astrology/Hindu Astrology) ग्रहनक्षत्रों की गणना की वह पद्धति है जिसका भारत में विकास हुआ है। आजकल भी भारत में इसी पद्धति से पंचांग बनते हैं, जिनके आधार पर देश भर में धार्मिक कृत्य तथा पर्व मनाए जाते हैं। वर्तमान काल में अधिकांश पंचांग सूर्यसिद्धांत, मकरंद सारणियों तथा ग्रहलाघव की विधि से प्रस्तुत किए जाते हैं। कुछ ऐसे भी पंचांग बनते हैं जिन्हें नॉटिकल अल्मनाक के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है, किंतु इन्हें प्राय: भारतीय निरयण पद्धति के अनुकूल बना दिया जाता है। आइए जानें भारत के ऐसे ही महानतम ज्योतिर्विद् को जिन्हें ब्रह्मांड से लेकर पाताल तक के रहस्य की जानकारी थी।
आर्यभट (प्रथम)-
आर्यभट ही ऐसे प्रथम गणितज्ञ ज्योतिर्विद् हैं, जिनका ग्रंथ एवं विवरण प्राप्त होता है। वस्तुत: ज्योतिष का क्रमबद्ध इतिहास इनके समय से ही मिलता है। इनका गणित ज्योतिष से संबद्ध आर्यभटीय-तंत्र प्राप्त है, यह उपलब्ध ज्योतिष ग्रंथों में सबसे प्राचीन है। इसमें दशगीतिका , गणित, कालक्रिया तथा गोल नाम वाले चार पाद हैं। इसमें सूर्य और तारों के स्थिर होने तथा पृथ्वी के घूमने के कारण दिन और रात होने का वर्णन है। इनके निवास स्थान के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है, कुछ लोग दक्षिण देश के ‘कुसुमपुर’ को इनका स्थान बताते हैं तथा कुछ लोग ‘अश्मकपुर बताते हैं। इनका समय 397 शकाब्द बताया गया है। गणित ज्योतिष के विषय में आर्यभट के सिद्धांत अत्यंत मान्य हैं। इन्होंने सूर्य और चंद्र ग्रहण के वैज्ञानिक कारणों की व्याख्या की है और वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल आदि गणितीय विधियों का महत्वपूर्ण विवेचन किया है।
वराहमिहिर-
भगवान सूर्य के कृपापात्र वराहमिहिर ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को सिद्धांत, संहिता तथा होरा के रूप में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया। इन्होंने तीनों स्कंधों के निरूपण के लिए तीनों स्कंधों से संबद्ध अलग-अलग ग्रंथों की रचना की। सिद्धांत (गणित)- स्कंध में उनकी प्रसिद्ध रचना है- पंचसिद्धांतिका, संहितास्कंध में बृहत्संहिता तथा होरास्कंध में बृहज्जातक मुख्य रूप से परिगणित हैं।
वराह मिहिर का जन्म उज्जैन के समीप ‘कपिथा गाँव’ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता आदित्यदास सूर्य के उपासक थे। उन्होंने मिहिर को (मिहिर का अर्थ सूर्य) भविष्य शास्त्र पढ़ाया था। मिहिर ने राजा विक्रमादित्य के पुत्र की मृत्यु 18 वर्ष की आयु में होगी, यह भविष्यवाणी की थी। हर प्रकार की सावधानी रखने के बाद भी मिहिर द्वारा बताये गये दिन को ही राजकुमार की मृत्यु हो गयी।
राजा ने मिहिर को बुला कर कहा, ‘मैं हारा, आप जीते’। मिहिर ने नम्रता से उत्तर दिया, ‘महाराज, वास्तव में तो मैं नहीं ‘खगोल शास्त्र’ के ‘भविष्य शास्त्र’ का विज्ञान जीता है’। महाराज ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान वराह प्रदान किया और उसी दिन से मिहिर वराह मिहिर के नाम से जाने जाने लगे। भविष्य शास्त्र और खगोल विद्या में उनके द्वारा किए गये योगदान के कारण राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने वराह मिहिर को अपने दरबार के नौ रत्नों में स्थान दिया।
वराह मिहिर की मुलाक़ात ‘आर्यभट्ट’ के साथ हुई। इस मुलाक़ात का यह प्रभाव पड़ा कि वे आजीवन खगोलशास्त्री बने रहे। आर्यभट्ट वराह मिहिर के गुरु थे, ऐसा भी उल्लेख मिलता है। आर्यभट्ट की तरह वराह मिहिर का भी कहना था कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद ‘न्यूटन’ ने इस अज्ञात बल को ‘गुरुत्वाकर्षण बल’ नाम दिया।
पृथुयश-
पृथुयश आचार्य वराहमिहिर के पुत्र हैं। इनके द्वारा विरचित ‘षट्पंचाशिका’ फलित ज्योतिष का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें सात अध्याय हैं।
कल्याण वर्मा-
इनका समय शकाब्द 500 के लगभग है। इनकी लिखी सारावली होराशास्त्र का प्रमुख ग्रंथ है। इन्हें गुर्जरदेश (गुजरात)- का बताया गया है। सारावली फलादेश अत्यंत प्रामाणिक माना जाता है। इसमें 42 अध्याय हैं। कहा जाता है कि इन्हें सरस्वती का वरदान प्राप्त था। भट्टोत्पल ने बृहज्जातक की टीका में सारावली के कई श्लोक उद्धृत किए हैं।
लल्लाचार्य-
लल्लाचार्य ज्योतिष के सिद्धांत स्कंध से संबद्ध ‘शिष्यधीवृद्धितंत्र’ ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध है। इनके समय के विषय में मतभेद हैं, किंतु कुछ आचार्यों का कहना है कि ये 500 शकाब्द के आसपास विद्यमान थे। इन्हें दाक्षिणात्य बताया गया है। इन्होंने रत्नकोष (संहिता ज्योतिष) तथा जातकसार (होरास्कंध) नामक ग्रंथों का भी प्रणयन किया। लल्लाचार्य गणित, जातक और संहिता इन तीनों स्कंधों में पूर्ण प्रवीण थे। शिष्यधीवृद्धितंत्र में प्रधान रूप से गणिताध्याय और गोलाध्याय- ये दो प्रकरण हैं। गणिताध्याय में अनेक अधिकार (प्रकरण) हैं। भास्कराचार्यजी इनके प्रौढ़ ज्ञान से विशेष प्रभावित थे।
भास्कराचार्य (प्रथम)-
इनका समय 530 शकाब्ध के आसपास माना गया है। इनके महाभास्करीय तथा लघुभास्करीय- ये दो ग्रंथ हैं। आर्यभटीय का भी इन्होंने व्याख्यान किया था। ये लीलावती के लेखक प्रसिद्ध भास्कराचार्य से भिन्न हैं।
ब्रह्मगुप्त-
महान गणितज्ञ आचार्य ब्रह्मगुप्त ब्राह्मसिद्धांत का विस्तार करने वाले हैं। इनका समय 520 सकाब्द है। प्रसिद्ध भास्कराचार्य ने इन्हें ‘गणकचक्र-चूड़ामणि’ कहा है। इन्होंने ब्राह्मस्फुटसिद्धांत तथा खंडखाद्य नामक करण ग्रंथ का निर्माण किया। ये विष्णु के पुत्र हैं। ये गुर्जर प्रांत के भिन्नमाल ग्राम के निवासी थे।
इन्होंने गणित के क्षेत्र में महान सिद्धांतों की रचना की और नवीन मत भी स्थापित किए। यह कहा जाता है कि तीन ही सिद्धांत (गणित की पद्धितियां) हैं- (1) आर्य, (2) सौर तथा (3) ब्राह्म और इनके क्रमश: तीन ही आचार्य भी हुए हैं- (1) आर्यभट, (2) वराहमिहिर तथा ब्रह्मगुप्त। ये वेद विद्या में अत्यंत निपुण और असाधारण विद्वान थे। इन्होंने बीजगणित के कई नियमों का आविष्कार किया इसीलिए ये गणित के प्रवर्तक कहे गए हैं। अलबरूनी ने इनके इनके गणित ज्ञान की बहुत प्रशंसा की है। ये आर्यभट से उपकृत भी थे, किंतु खंड खाद्य में उनके अनेक मतों का प्रबल विरोध भी इन्होंने किया।
श्रीधराचार्य-
बीजगणित के ज्योतिर्विदों में श्रीधराचार्य का स्थान अन्यतम है। इनके त्रिशतिका (पाटी गणित), बीजगणित, जातक पद्धति तथा रत्नमाला आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। परवर्ती भास्कराचार्य आदि इनके सिद्धांतों से बहुत उपकृत हैं।
वित्तेश्वर (वटेश्वर)-
इन्होंने सिद्धांत बटेश्वर लिखा है, जिसे हाल ही में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑव ऐस्ट्रोनॉमिकल ऐंड संस्कृत रिसर्च, नई दिल्ली, ने छपाया है। अलबेरुनी के पास इस ग्रंथ का एक अरबी अनुवाद था और उसने इसकी बहुत प्रंशसा की है। इसकी ज्याप्रणाली अन्य सिद्धांतों की ज्याप्रणाली से सूक्ष्म है। कुछ विद्वानों के अनुसार वित्तेश्वर और बटेश्वर एक ही व्यक्ति थे। ‘करणसार’ नामक इनका ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। यह ग्रंथ आर्यभट के सिद्धांतों का अनुगमन करता है।
मुंजाल-
इनका रचनाकाल शक संवत् 854 है। मुंजाल का ज्योतिष-जगत् में महान आदर है। ये भारद्वाजगोत्रीय थे। इनका उपलब्ध ग्रंथ लघुमानसकरण है। अयनांशनिरूपण में इनका विशिष्ट योगदान रहा है। प्रतिपाद्य विषय गणित होने पर भी इस ग्रंथ की शैली बड़ी रोचक तथा सुगम है। इन्होंने अयनगति 1 कला मानी है। अयनगति के प्रसंग में भास्कराचार्य ने इनका नाम लिया है। मुनीश्वर ने मरीचि में अयनगति विषयक इनके कुछ श्लोक उद्धृत किए हैं, जो लघुमानस के नहीं हैं। इससे पता चलता है कि मुंजाल का एक और मानस नामक ग्रंथ था, जो उपलब्घ नहीं है।
Real great information can be found on weblog.Leadership